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इतिहास

सांई परमानन्द साहिब जनों की जीवनी

पूज्यपाद सांई परमानन्द साहिब जनों का जन्म 14 जनवरी 1898 में सिन्ध, शिकारपुर के सेठ चोकसराम मोतीराम चुग आसरानी के घर में एक अवधूत "ज्यों का त्यों" नामक महापुरूष के आर्शीवाद से हुआ था। दो तीन वर्ष बाद जब वही अवधूत महापुरूष सेठ चोकसराम के बगीचे में पधारे और कहा कि आप के यहाँ राजयोगी बालक का जन्म हुआ है, जो कि एक बड़े महापुरूष के सम्पर्क में आएगा और पूरे कुल का कल्याण करेगा।

पाँच वर्ष की उम्र में सत्त शास्त्रों को पढ़ने की चाह के कारण हिन्दी और गुरमुखी स्वयं सीखी। परिवार में धार्मिक वातावरण, गीता, सुखमनी का पाठ सहज रूप से और इसके अलावा सांई परमानन्द साहिब योग-वशिष्ठ बचपन में ही बड़े चाह से पढ़ते थे।

11 वर्ष की उम्र में पिता श्री चोकसराम जी का 77 वर्ष की उम्र में सन् 1908 में अचानक स्वर्गवास हो गया। इस स्थिति से सांईजन में विशेष वैराग्य का भाव पैदा हुआ। एक दिन अचानक क्या विचार आया कि स्टेशन जाकर अमृतसर की टिकट लेकर वहां पहुंच गए। भिक्षा का भाव तो था नहीं, मजदूरी कर र्निवाह करते। यहाँ शिकारपुर में खोजना हुई, एक परिचित अमृतसर पहुंचे पहचानकर शिकारपुर वापस ले गए। 13 वर्ष की उम्र में पूज्य माता श्री का शरीर शांत हो गया । इस प्रसंग से जीवन में उदासीनता और बढ़ी। हरिद्वार क्रिया के लिये गए, वहां के शांत वातावरण व संत समागम और सत्संग से शान्ति मिली और मन मे वहीं रूकने का भाव जगा। सांई परमानन्द साहिब को वैराग्य व उपराम भाव में यही ख्याल आते थे, कि आखिर जीवन क्या है? प्राण कैसे चल रहे हैं, चेतना कहां से मिल रही है? खान-पान और व्यवहार में जी नहीं लगता था। सबेरे काफी समय योग-अभ्यास तथा सत्त-शास्त्रों का अध्ययन एवम् शाम को हासाराम जिज्ञासु के मंदिर जाकर बैठते थे। योगाभ्यास करते-करते मन में ये भाव अक्सर बना रहता था, कि पूर्ण गुरू से मिलाप हो ताकि जीवन का लक्ष्य जान पांऐ। सिन्धी संत गोविन्ददास से पूज्यपाद मस्तराम देव की माहिमा सुनी, दर्शन की उत्कंठा जगी, पता चला कि मुल्तान में सुमर्थ देव निर्विकल्प अवस्था में बैठे हैं। यहां सांईजन की वैराग्य स्थिति देख, घर वाले चिन्तित और शादी कराने का ख्याल आया। इसी समय बहन के साथ तीर्थयात्रा हरिद्वार, काशी, गया, अयोध्या तथा प्रयागराज आदि गए।

सन् 1915 में सांईजन कराची में शाम को पंडित जय कृष्ण शर्मा के यहाँ एक संत ने श्री सुमर्थदेव की मुर्ति दिखाई । पंडित गोविन्द शर्मा, सांईजन को वहीं उनके मंदिर की देखभाल करने के लिया बोलकर मुलतान गए-वापस आकर सुमर्थदेव की बेपरवाह अवस्था का वर्णन किये व दूर से एक तस्वीर खींची थी, सांईजन मुर्ति के आगे यही अरदास का भाव, कि दर्शन दें। कराची शहर से थोड़े दूर गोरख आमड़ी तालाब पर एक वट-वृक्ष के नीचे विराजमान हो, पत्थर को शिला बना दिगम्बर अवस्था में रहते। बेपरवाह अवस्था किसी से बात नहीं करते। आखि वह सौभाग्यशाली दिन आ गया। कुछ सच्चे श्रद्धालु, सांईजन, पंडित गोविन्दराम आदि रूके रहे, जिन्हें सुमर्थ देव ने योग अभ्यास के साधन सिखाया। सांईजन गुरू भाईयों में सब से छोटे थे, सब से सेवा भाव व नम्रता से मिलते, सब इनकी सुमर्थदेव के पास सराहना करते। सुमर्थदेव बोले कि तुम हमारे पास नहीं आए तो हम आ गए। तुम्हें गुहस्थाश्रम में रहना है, चिन्ता नहीं करना, असली उदेश्य में रूकावट नहीं होगी। परमार्थ में सब सुख सुविधा मिलती रहेगी तुम्हें मदरसा भी चलाना है। शिकारपुर के बगीचे में घास-फूस की छोटी कुटिया बनाकर एक रेत का तथा दूसरा राख का आसन बनाकर अभ्यास का दृढ़ संकल्प कर सबेरे 8 से 10 बजे तक कुटिया में रूक कर योगाभ्यास व वेदों के महा वाक्य का चिन्तन करते । दोपहर को सिर्फ दूध व फल लेते, तथा कुछ देर सैर कर शाम को 5 से 8 तक फिर योगाभ्यास करते । रात्रि को घर जाकर उबली सब्जी व रोटी खाते। सांईजन की परमार्थ की इतनी रुचि व अभ्यास का लगाव देखकर घर वालों को थे आशंका बनी रहती थी कि विवाह कब करेंगे। घर वालों के प्रयत्न व सुमर्थदेव के कथन, सांईजन भी प्रारब्ध स्वीकार कर शादी कि। सांईजन का यही ध्यान कि दुर्लभ मनुष्य जन्म का लाभ लेना है। प्रारब्ध तो कर्म अनुसार बना है, परमार्थ के लिये पुरषार्थ करना है। गुहस्थाश्रम को जिन्दगी का पार्ट समक्ष बगैर मोह, ममता के निभाते रहे, परन्तु ईश्वर लीला बारह महीने में धर्मपत्नी का स्वर्गवास हो गया। सम्बन्धी दूसरी शादी के लिये जोर करने लगे, सब की इच्छा देख सांईजन तैयार हुए, सेठ टहलराम माखीजा की कन्या पूज्य मैनाबाई से 1921 में विवाह हुआ। सांईजन ने बारह वर्ष तक अभ्यास कर, धर्मपत्नी को सत्त उपदेश की राह समझा हरिद्वारा चले गए। वहां एकांत वास किया। गृहस्थ का पार्ट, नीती मर्यादानुसार थोड़ा समय देते थे। सूफी संतो से भी इसी दौरान संगत हुई, यकतारे पर सांईजन भी वेदान्त का सार सुनाते थे। मुसलमान भाई भी सांईजन को फकीरशाह कहकर पुकारते थे। भक्तों का आग्रह, अदाकशी सन्तसंग की प्रार्थना किए। सांईजन बोले बारस सुमर्थदव का दिन है, उस दिन सन्तसंग करूंगा और 1922 से यह सन्तसंग का सिलसिला शुरु हुआ। जहां अलग-अलग शहरों से सन्तसंगी आने लगे और "हलु-बारस" के नाम से जाना जाने लगा। वहीं समयानुसार 19 मई 1926 "गंगा सत्तमी" के दिन आश्रम बन कर तैयार हुआ। 12 वर्ष का योग व्रत 1927 में पूरा हुआ, उसकी समाप्ति पर सांईजन 40 दिन सक्षम आहार और मौन व्रत में रहे। 1930 में आश्रम में कैनवास के जूते बनाने के लिये धर्मरक्षक हुनर शाला खोली।

"1947" के विभाजन के समय सांईजन "आबू" पहाड़ पर थे। सांईजन ने सखावतराय को शिकारपुर जाने की आज्ञा दी। सांईजन हरिद्वार में सुगनीचंद धर्मशाला में रहे। ऋषिकेश मे सुमर्थदेव की वर्सी महोत्सव मनाया, संयोगवश उसी दिन" सुमर्थदेव का मुर्ति शिकारपुर भेजी हुई, मिल गई। यह अद्भुत मुर्ति 1923 में शिकारपुर आश्रम में स्थापित की थी। अपना आश्रम हरिद्वार, कररवल के बीच बनवाया (जहां अभी आश्रम है) और 1948 में सुमर्थदेव के वर्सी महोत्सव के समय उद्घाटन हुआ। आज भी हरिद्वार आश्रम में प्रति वर्ष वर्सी महोत्सव पांच दिन बड़ी धूमधाम से होता है। जब सांई हरिऊलाल जी 13 वर्ष के थे, 2 अक्टुबर 1954 में पूज्य माता श्री अचानक ही शरीर त्याग, शिवलोक पधार गई। सांईजन 1954 में बम्बई आए और परमानंद हिन्दूजा की वाडी में रविवार के दिन सत्तसंग करते थे। सुमर्थदेव की प्रेरणा और सभी सत्संगियों के संकल्प से खार आश्रम भी 1958 में तैयार हो गया। जनवरी 14 से 1 मई तक हर वर्ष सत्संग का सिलसिला शुरू हुआ। उसके बाद भोपाल, इन्दौर, दिल्ली, अहमदाबाद, बरानपुर, व उल्हासनगर में भी आनन्द भण्डार आश्रम बन गये। कई शहरों में आनन्द मण्डलियां बनी। पूज्य सांईजन मुंबई आश्रम का चार महीने का प्रोग्राम पूरा कर, मंसूरी पहाड़ पर एकान्तवास करते थे तथा सब के कल्याणार्थ आत्मज्ञान से भरपूर प्रसाद रूप पुस्तकों की रचना करते थे। उसके बाद हरिद्वार में सुमर्थदेव जनों की वर्सी महोत्सव मनाते थे। हरिद्वार में सांय 5:30 बजे पंचदशी ग्रन्थ पर उपदेश कर, निलधारा की तरफ सैर को निकल जाते थे। दिसम्बर में बम्बई आते थे। इसी तरह सिलसिला चलता रहा। तारिख 9 अगस्त 1981 में पूज्य सांईजन ने हरिद्वार वेदान्त सम्मेलन हाल में शाम को अपना शरीर शांत कर दिया तथा ब्रहम में लिन हो गये। लेकिन उनका ज्ञान (सत्संग) आज तक तेप दुबारा चलता रहता है।